वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

धोती को आधा फाड़ कर पांव पर बांध लिया।

13 जुलाई 2020 का ज्ञान प्रसाद चेतना की शिखर यात्रा 2

9गुरुदेव की हिमालय यात्रा पर आधारित पिछले सप्ताह हमने दो लेख आपके समक्ष प्रस्तुत किये। आज एक बार फिर दो और लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। लेख आरम्भ करने से पूर्व हम आपके साथ यह तथ्य शेयर करना चाहेंगें कि गुरुदेव के बारे में जितना पढ़ा जाये , जितना लिखा जाये, जिज्ञासा अधिक से अधिक बढ़ती ही जाती है। गुरुदेव ने इतना विशाल साहित्य लिखा हुआ है कि हमारे जैसे तुच्छ इंसान के लिए उस पर रिसर्च करना एक अनहोना प्रयास लगता है। अक्षर- ब- अक्षर पढ़ना, फिर गूगल से उन तथ्यों को confrim करना ,हो सके तो गुरुदेव के पुराने सहकर्मियों को भी सम्पर्क करना और इन सभी प्रयासों के उपरांत इस बात का ध्यान रखना कि जो भी आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं बिल्कुल ठीक हो। इस तरह के प्रयास का उदेश्य और भी परिपक्व हो जाता है जब मन में यह धारणा है कि गुरुदेव ने अपने आप को किन- किन परिस्थितियों में, कड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर हमारे लिए इतने तप किये। हाँ हमारे लिए – उन्होंने अपने लिए तो कभी कुछ किया ही नहीं ,जो भी तप -शक्ति अर्जित की हम उसका परिणाम देख ही रहे हैं। ठीक एक माँ बाप की तरह ,अपने बच्चों के लिए।

तो आइये चलें आज की यात्रा पर गुरुदेव के साथ -साथ

1)  गुरुदेव के ऊपर पीली मक्खियों का आक्रमण :

गुरुदेव गोमुख की तरफ सुक्की चट्टी के क्षेत्र में जा रहे थे। साथ में करीब आठ -दस और लोग भी चल रहे थे। सेब के पेड़ों पर भिनभिनाती पीली मक्खियों ने एक दम आक्रमण कर दिया। बुरी तरह यात्रियों के शरीर के साथ चिपट गयीं। इतनी बुरी तरह से कि छूटने से नहीं छूटती थी। हाथ से, कपड़ों से, हटाने ,भगाने की कोशिश की लेकिन कोई असर नहीं हुआ। बचाव के लिए खुद भागने का रास्ता अपनाया , गिरते पड़ते आधा मील भागे तब कहीं जाकर उनकी पहुँच से बाहर निकले। पीली मक्खियों ने जहाँ तहाँ डस लिया था। उस कारण सूजन आ गयी थी। कई दिन तक दर्द होता रहा। गुरुदेव के मन में ख्याल आया कि हमने इन मक्खियों का क्या बिगाड़ा था। हमें देख कर इन के मन में यह विचार आया होगा कि यह लोग हमारे क्षेत्र पर कब्ज़ा करने आए हैं । अगर मक्खियों ने ऐसा सोचा है तो बहुत ही गलत सोचा है क्योंकि हम लोग तो अपने रास्ते से चुपचाप किसी को तंग किये बिना जा रहे थे। सुनने में तो अक्सर यह आता है की किसी जानवर या जीव जंतु को जब तक न छेड़ें वह कुछ नहीं कहते। लेकिन यहाँ तो बिल्कुल विपरीत ही चल रहा है। हम मासूमों पर इस तरह आक्रमण करना क्या इन मक्खियों को शोभा देता है। हमने इनका क्या बिगाड़ा है। घर से दूर ,इतनी विकट परिस्थितियों में हम अपने लक्ष्य की ओर जा रहे थे, इनको इस तरह हम पर अत्याचार नहीं करना चाहिए था।

जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तो मन में यह प्रश्न उठ रहे हैं कि यात्रा में गुरुदेव के साथ आठ -दस लोग और भी तो चल रहे थे ,क्या उनके मन में भी इस तरह के प्रश्न उठे होंगें। हो सकता है उठे हों परन्तु गुरुदेव के विचारों पर तो हम मुहर लगा सकते हैं। यह इस लिए कि उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षण को हम सबके लिए कुछ न कुछ अमृतवता निकालने का प्रयास किया है। उनके द्वारा लिखे गए ,बोले गए प्रीतिदिन circulate होने वाले अमृत वचन, सद्चिन्तन उनके निजी जीवन का ही सार हैं। इन पंक्तियों को लिखते समय हमने एक कार्य और किया। इसको बीच में ही रोक कर ऋषि चिंतन चैनल की उस वीडियो को देखा जो इसी शीर्षक पर कुछ समय पूर्व रिलीज़ हुई थी। यह प्रयास करने का तात्पर्य यह था कि कहीं कोई महत्वपूर्ण घटना मिस न हो जाये।

तो आइये चलें एक बार फिर गुरुदेव के संग -संग।

इन पीली मक्खियों का इस प्रदेश में अपना प्रभुत्व जमाने का सोचना हमें तो गलत ही लगा था। उस परमपिता परमात्मा ने यह सृष्टि हर प्राणी के लिए बनाई है, सब किसी के साथ-साथ इकठे प्रेम और भातृभाव से रहने के लिए। मक्खियों ने व्यर्थ में ही अपनी शक्ति का हम पर प्रदर्शन किया, हमें डराने और भगाने में वह सफल तो हो गयीं , इसी प्रदर्शन में कुछ एक तो मसल कर मर भी गयीं। क्या हासिल हुआ इस भागदौड़ में – ego ? अपना प्रभुत्व ? हम मक्खियों के प्रभुत्व की बात कर रहे हैं। भगवान की सर्वश्रष्ठ कलाकृति -मानव के बारे में भी यही कुछ हो रहा है। हम यह कहना बड़ा गर्व समझते हैं कि हम भगवान की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति हैं परन्तु कार्यों में हम इन पीली मक्खियों से भी गिरे हुए हैं। सब कुछ हासिल कर लेने की भूख ,सब किसी वस्तु पर ,प्रदेश पर ,देश पर अपना कब्ज़ा जमाने की लालसा ने हमें इनसे भी छोटा बना दिया है। सभी के लिए अच्छे साधन उपलब्ध हों तो यह विश्व स्वर्गतुल्य हो सकता है परन्तु बड़ी मछली छोटी मछलियों को कहां जीने देती हैं।

मक्खियों ने दूसरे साथियों को इतना दुखी कर दिया था कि किसी के साथ बात करना तो क्या सामने पर्वत पर विधमान वैभव को भी अनदेखा कर रहे थे।। लेकिन गुरुदेव की दृष्टि से उस परम् शक्ति का वैभव कैसे छूट सकता था। सामने पर्वत पर दृष्टि डाली तो ऐसा लगा मानो हिमगिरि
स्वयं अपने हाथों से भगवान शिव को जल से अभिषेक करता हुआ पूजा कर रहा है। दृश्य बड़ा ही अलौकिक था। बहुत ऊपर से एक पतली सी जलधारा नीचे गिर रही थी। जहाँ यह जलधारा गिर रही थी वहां प्रकृति के बड़े शिवलिंग थे ,धारा उन्ही पर गिर रही थी। जल धारा इतनी ऊपर से गिरने के कारण छीटें बना रही थीं और सूर्य की किरणे उन छीटों पर पड़ने से सात रंगों का इंद्रधनुष बना रही थीं। लगता था साक्षात् भगवान शिव यहाँ विराजमान हैं उनके शीश पर आस पास से गंगा गिर रही है और देवता रंग-बिरंगें पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। इतना मोहक दृश्य था कि देखते हुए मन भी नहीं भरता था। इस अलौकिक दृश्य को गुरुदेव तब तक देखते रहे जब तक अँधेरे ने पटाक्षेप नहीं कर दिया। रात होने तक गुरुदेव इस दृश्य को निहारते रहे। -ऐसे दृश्य एक साधक कि दृष्टि ही देख सकती है।

2) गुरुदेव के पांव में छाले :

समद्र से 10000 फुट की ऊंचाई पर बसे गंगोत्री प्रदेश में गुरुदेव का ज़्यादा रुकना नहीं हुआ। लोग ज़्यादातर यहीं से वापिस चले जाते है। 18 मील आगे गोमुख जाने का जोखिम कोई-कोई ही उठाता है। पर गुरुदेव ने तो अपने मार्गदर्शक के पास जाना था और वहीँ से दादा गुरुदेव का भेजा दूत उनको आगे लेकर जाता था। गंगा की छोटी सी धारा , मुश्किल से 3 फुट होगी ,उसी में गुरुदेव ने स्नान ,आचमन किया और गोमुख की राह पकड़ी। साथ चल रहे सभी यात्री वापिस चले गए थे। अकेले में इस मार्ग पर चलना और यह यात्रा करनी किसी साधारण मानव का कार्य नहीं हो सकता। तो गुरुदेव कोई साधारण मानव थोड़े ही हैं ,वह तो कुछ भी कर सकते हैं। भागीरथ शिला पर आकर गुरुदेव ने पिंडदान किया।

पुराणों के अनुसार इस शिला पर भागीरथ ने तप किया था और उनके तप से प्रसन्न होकर गंगा स्वर्ग से उतर कर पृथ्वी पर आयी थी। महादेव ने अपनी जटाएं खोल कर इसी स्थान पर गंगा अवतरण किया था। जिस स्थान पर गंगावतरण हुआ वह गौरीकुंड के नाम से जाना जाता है। भागीरथ शिला के पास गंगा मंदिर में गुरुदेव ने पूजा अर्चना की और गोमुख की ओर बढ़ गए। गुरुदेव की अब तक की यात्रा पैदल ही थी- हाँ पैदल। हमारे पाठक सोच में पड़ गए होंगें कि क्या आगे कोई वाहन उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ ऐसा ही समझिये मित्रो। एक नियत स्थान पर मार्गसत्ता ,दादागुरु सर्वेश्वरानन्द का दूत खुद- बखुद ले जाता था।

लगातार चलने से गुरुदेव के दोनों पांव में छाले हो गए थे। ध्यान से देखा तो दोनों पांव में आठ -दस छाले हो गए थे। कपड़े का नया जूता पहना था। सोचा था इससे पथरीले ,मुश्किल रास्ते में सुविधा होगी परन्तु वह भी साथ छोड़ गया था। इन छालों में जो कच्चे थे वह सफेद थे और जो पीले थे उनमें पानी पड़ गया था। छाले चलने में दर्द करते थे । गुरुदेव ने दर्द की कोई परवाह किये बिना आगे बढ़ना ही जारी रखा, गुरु पूर्णिमा तक हर स्थिति में एक नियत स्थान पर पहुंचना था। दादा गुरु का निर्देश जो था। उनके आदेश, निर्देश के समक्ष तो गुरुदेव सदैव ही नतमस्तक रहते थे। पांव अभी से दांत दिखायेगें तो कैसे बनेगा। लंगड़ा -लंगड़ा कर कल तो किसी प्रकार चले थे पर आज मुश्किल हो रही है। दो तीन छाले जो फट गए थे जख्म बनते जा रहे थे। अगर और भयानक स्थिति हो जाये तो चलना कठिन हो जायेगा और अगर न चल सके तो नियत समय पर नियत स्थान पर पहुंचना कठिन हो जायेगा। इस चिंता ने दिन भर परेशान रखा। नंगे पैर चलना और भी कठिन है। पथरीली धरती पर तेज़ कंकड़ बिछे रहते हैं और पांव में धस ही जाते हैं और काँटों की तरह दर्द करते हैं। एक ही उपाय सूझा। 

गोमुख जाकर मार्गसत्ता से मिलने के हर्ष ने पांव की दुविधा को कम करने में सहायता दी। मित्रो जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तो एक बात बार -बार हृदय को कचोट रही थी कि वह गुरुदेव जो मृत शरीरों में जान डालने की समर्था रखते हैं अपने-आप को इतना कष्ट क्यों दे रहे हैं। अगर हम अपने विवेक से इस प्रश्न का उत्तर दें तो यही है कि गुरुदेव ने अपने लिए कभी कुछ नहीं किया ,चाहा। अपनी तप-शक्ति ,सिद्धियां सदैव लोक हित के लिए ही प्रयोग में लाईं। हमने अपने किसी पुराने लेख में “चेतना की शिखर यात्रा ” पुस्तक को रेफर करते हुए इस तथ्य का वर्णन किया था। माताजी को हार्ट हुआ था और गुरुदेव ने उनके इलाज के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करने से मना कर दिया था। गुरुदेव ने तब भी यही कहा था- मेरी तप -शक्ति ,सिद्धियां मेरे या मेरे परिवार के लिए नहीं हैं। ऐसी महानता केवल हमारे गुरु में ही हो सकती हैं -शत-शत नमन ऐसे गुरु को -जय गुरुदेव।

इस लेख को पढ़ते -पढ़ते और फिर अपनी लेखनी से ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों के लिए चित्रित करना एक कठिन सा कार्य लग रहा था। कठिन केवल भावना की दृष्टि से था। बार -बार एक आँखों से आंसू आ रहे थे कि गुरुदेव ने इस मानवता के लिए ,अपने बच्चों के लिए ,इस विशाल परिवार के लिए अपने पांव के छाले तक नहीं देखे। छाले जख्म बन गए थे लेकिन गुरुदेव चलते ही रहे। ऐसा समर्पण ,निष्ठां और श्रद्धा देख कर हमें अपनी आँखें हीनता में झुकाने को हो रहा था। आशा है हम अपने सहकर्मियों की अंतरात्मा में गुरुदेव के प्रति समर्पित होने की भावना की चिंगारी फूकने में सफल होंगें। आज का समय अपने गुरु का ऋण चुकाने का समय है ,अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देने का। आओ हम एकलव्य बनने का प्रण लें।

हमें फिर जिज्ञासा हुई कि जिस प्रदेश में गुरुदेव जा रहे हैं कैसा होगा। आवागमन ,सड़कें वगैरह कैसी होंगीं। लेकिन अगर हम ऑनलाइन source से खोजने का प्रयास भी करें तो आज कल की स्थिति ही पता चल सकती है। 1958 के इर्द गिर्द की स्थिति का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। भारत के बाकि भागों के मुकाबले में उत्तराखंड प्रदेश में इतनी अधिक development आज भी नहीं दिखाई देती। Highway तो बन रहे हैं परन्तु इस देवभूमि का विकास होना अति महत्वपूर्ण है , विकास के साथ- साथ प्राकृतिक सौंदर्य भी बचा के रखना आवश्यक है। यह प्रदेश भारत का ऐसा प्रदेश है जहाँ प्राकृतिक सम्पदाएँ उस परमपिता की देन हैं ,वरदान हैं।
जय गुरुदेव

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