गुरुदेव की प्रथम हिमालय यात्रा का यह तृतीय और अंतिम लेख है। पहले लेखों की तरह इस लेख को भी अधिक से अधिक फीलिंग वाला बनाया है। कुछ क्षण तो बिलकुल अविश्वसनीय लगते हैं। जिन लोगों को गुरुदेव की शक्ति का आभास नहीं है वह तो सोचेंगें यह सब मनगढंत है। गुरुदेव के साथ घटित यह वाले पल तो केवल 100 वर्ष पुराने हैं लेकिन हनुमान जी ने इन्ही हिमालय से संजीवनी बूटी ढूंढी थी ,वह तो हज़ारों वर्ष पुरानी बात है। हिमालय पिता और माँ गंगा की शक्ति अनंत है। इन लेखों द्वारा हम अपने सहकर्मियों में गुरुदेव की शक्ति को परिपक्व करने का प्रयास कर रहे हैं। हम अपने प्रयास में सफल भी हो रहे हैं ,ऐसा हमारा विश्वास है।
सन्यासी गुरुदेव को निर्देश देकर चला गया गुरुदेव थोड़ी देर इसी क्षेत्र में घूमते रहे I घुमते हुए गुरुदेव एक झील के पास आए I इस झील में कमल खिले हुए थे, कमल के फूलों में से विचित्र सुगंध आ रही थी कमल तो पहले भी देखे थे पर ऐसी सुगंध पहली बार हुई l नसिकों में गंध जाते ही तंद्रा ( नींद ) आने लगी , इस नींद में आनंद था और मस्ती थी l गुरुदेव को भय लगने लगा की कहीं कोई अनहोनी न हो जाये I भाग कर गुफा में आ गए और उसी शिला पर बैठ गए जहाँ मार्गसत्ता ने पहली बार बिठाया था I नींद इतनी गहरी हो गयी कि बोध ही नहीं हो रहा कि जाग्रत हैं यां सोये हुए I पता नहीं कितनी देर यह अवस्था रही लेकिन मानस पटल पर झील के कमल दिखाई देते ही रहे I एक कमल बाकि के पुष्पों से कुछ बड़ा था और उसके इर्द -गिर्द व्याप्त आभामंडल भी दिखाई दे रहा था I इस आभामंडल में एक आकृति भी दिख रही थी I यह आकृति आदि शक्ति गायत्री के स्वरूप की तरह थी I निहारते-निहारते समय का बोध ही भूल गया I अगर दादा गुरु आकर आवाज़ न लगाते तो पता नहीं कब तक इसी अवस्था में पड़े रहते l दादा गुरु ने श्रीराम कह कर पुकारा और एकदम प्रणाम में हाथ उठ गए और ऐसा लगा किसी ने गहरी नींद से झकझोड़ कर उठा दिया हो l
दादा गुरु ने कहा ,” अब आगे बढ़ने का समय आ गया है l जिस गंध ने तुम्हे इस समाधि की अवस्था में पहुँचाया है उसे ब्रह्मकमल कहते हैं ”
ऐसा सुनते ही गुरुदेव ने कहा ,” इस तरह के कमल हर तीर्थ में खिलने चाहिए ,लोग सहज ही ध्यान -साधना में आनंद लेने लगेंगे “
दादा गुरु ने कहा , ” कमल तो हर जगह खिल सकते हैं लेकिन उसकी गंध केवल सहायक ही हो सकती है , ब्रह्मकमल का सूक्ष्म प्रभाव ग्रहण करने योग्य साधना -स्थिति भी तो बननी चाहिए ”
इतना कह कर दादा गुरु ने गुरुदेव को अपने पीछे आने को कहा l दादा गुरु ने यह कोई सम्बोधन नहीं किया केवल अंतर्चेतना से हो गया था . इतना सुनते ही गुरुदेव उठे और पीछे-पीछे चल पड़े l आंवलखेड़ा से लाये थैले कपडे वगैरह की कोई चिंता नहीं रही गुरुदेव पूरी तेज़ी से चल रहे थे ,चलना कम प्रतीत हो रहा था। ऐसे लग रहा था जैसे गुर्त्वाकर्षण (gravity) का कोई प्रभाव ही नहीं रहा। पांव ऐसे लग रहे थे जैस हवा में उड़ रहे हों। रुई की तरह ,यां फिर धुंए की आकृति में चले जा रहे थे। गुरुदेव को उनके पीछे चलने में कोई प्रयास नहीं करना पड़ा। चलते- चलते दादा गुरु एक झील के भीतर आ गए। गुरुदेव किनारे पर ही थे। मार्गसत्ता पानी के ऊपर ऐसे चल रही थी जैसे धरती की सतह पर चल रही हो ,ऐसे भी नहीं लग रहा था कि उनके पांव पानी के बीच धंस रहे हों। झील के अंदर जाकर दादा गुरु एक ब्रह्मकमल के पास गए , उसे छूआ और फिर हाथ ऊपर उठाया। फूल उनके हाथ में उठता चला आया। दादा गुरु ने फूल ला कर गुरुदेव के हाथ में थमा दिया। ब्रह्मकमल को छूते ही गुरुदेव को लगा शरीर बिलकुल हल्का हो गया है ,शीत लहर और बर्फ वगैरह खत्म सी हो गयी। दादा गुरु आगे -आगे और हमारे गुरुदेव पीछे -पीछे ,पांव धरती से उठते लग रहे थे। लग रहा था जैसे चलने का कोई श्रम नहीं कर रहे हों। उस समय सिद्धियों की आवश्यकता थी क्योंकि बिना किसी साधन के इतने दुर्लभ मार्गों पर जाना लगभग असम्भव ही प्रतीत होता है।
दादा गुरु ज़रा ठिठके और रुक कर बोले , “ केवल इतना ही नहीं है, सिद्धियों से पता चलता है कि साधना ठीक मार्ग पर चल रही है ”
इसी तरह गुरुदेव ने लगभग आधे घंटे में कई मीलों की यात्रा करके पूरे प्रदेश का भृमण कर लिया। इस क्षेत्र में अद्भुत गंध आ रही थी जो पुष्पों आदि की नहीं थी ,गुरुदेव ने कइयों को तो छू कर भी देखा। इसी बीच दादा गुरु एक जगह रुके और एक शिला पर बैठ गए। हमारे गुरुदेव सामने करबद्ध ( हाथ जोड़े ) खड़े थे। दादा गुरु ने संकेत करके उधर देखने को कहा। गुरुदेव के देखते ही कानो में वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूंजने लगीं ,सामने घाटी में चोबीस सन्यासी अलग -अलग कुंडों पर बैठे यज्ञ कर रहे थे। उनकी आयु 30 से 80 वर्ष लगती थी और शैली पुरातन युग की थी। उनकी काया हष्ट पुष्ट लगती थी ,ऐसा नहीं लगता था कि उन्होंने कोई लम्बे समय का उपवास किया हो अथवा शरीर को किसी प्रकार का कष्ट दिया हो l अग्निहोत्र को देख कर गुरुदेव अपनी सुधबुध भूल गए। शिला पर बैठे दादा गुरु ने कहा ,
“ यह ऋषि सत्ताएं हैं ,विश्व शांति में कार्यरत हैं इन्हे अपने मोक्ष और पुण्य की कोई आवश्यकता नहीं है , उस स्थिति को यह पार कर चुके हैं। यह सब विश्व शांति के लिए कर रहे हैं। आगे भी संसार का संतुलन साधने के लिए तप और यज्ञ की आवश्यकता पड़ेगी। यह कार्य तुम्हे करना है। सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए कर्मकांड ही पर्याप्त नहीं है उनमें प्राण भी होना चाहिए। यज्ञ ,अनुष्ठानों और धार्मिक आयोजनों में ऊर्जा उत्पन्न करने की सामर्थ्य तपः पूत आत्मायों में होती है। वह महान तप तुम आरम्भ कर चुके हो। यथा समय उनका विधि विधान बताते रहेंगें “
इसके उपरांत दादा गुरु थोड़ा चुप हो गए ,लग रहा था अंतर्मन से कुछ कह रहे हों। अब चलने की तैयारी होने लगी। गुरुदेव ने देखा ऋषिसत्ताएँ अपना यज्ञ छोड़ कर पास आ गयीं और जो पहले केवल 24 थीं अब उनकी संख्या बहुत ज़्यादा हो गयी। ऐसा लग रहा था जैसे सभी दिशाओं में से चलकर आयी हों। यह कहना ज़्यादा ठीक होगा ऋषिसत्तायं प्रकट हुई थीं। दादा गुरु और गुरदेव ने सभी को वंदन किया।
दादा गुरु ने कहा अब तुम अपने अन्तस् का अनुकरण करो ,वहां जैसी प्रेरणा उठे उसी दिशा में जाओ। गुरुदेव ने यह निर्देश सुना और यह आश्वासन भी सुना कि जहाँ भी जाओगे हमारा संरक्षण और ऋषि सत्ताओं का परिमार्जन तंत्र उपलब्ध रहेगा
प्रेरणा उठी कि गंगोत्री जाना है। ब्रह्मकमल ने शरीर बहुत ही हल्का कर दिया था लेकिन इसका उपयोग केवल हिमालय क्षेत्र में ही करना था। पवन के वेग से गुरुदेव कब गंगोत्री पहुंचे पता ही नहीं। गंगोत्री पहुँच कर गुरुदेव कुछ देर तक भागीरथी शिला पर बैठे और फिर 2-4 दिन रुक कर अपनी अनुभूतियाँ और स्मृतियों के सहारे आंवलखेड़ा पहुँच गए। माता जी चिरंजीव को सकुशल देखकर फूली न समाई।
जय गुरुदेव
उत्तराखंड राज्य जिसे देवभूमि की संज्ञा दी गयी है आधुनिकरण के कारण अपनी दिव्यता खो रहा है। इसका आभास हमें तब हुआ जब हम शांतिकुंज से देवप्रयाग ड्राइव कर रहे थे। बहुत उच्कोटि के हाईवे तो बन ही रहे थे लेकिन दिव्य हिमालय को बलिदान करके।