वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव का साथ जोशीमठ से नंदनवन की यात्रा

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ज्ञानरथ के सहकर्मियों का अभिनंदन करके हम आज वाले लेख को आरम्भ करने से पहले 29 जून वाले लेख के साथ कनेक्शन बनायेगें। उस लेख का अंत हमने गुरुदेव के जोशीमठ वापिस आने पर किया था। अंतर्मन से फील (feel ) प्राप्त करवाने के लिए हमने इस लेख में तीन मैप बनाये हैं जिससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि उत्तराखंड प्रदेश के किस क्षेत्र की बात कर रहे हैं। वैसे तो सारे उत्तराखंड को ही देवभूमि की संज्ञा दी गयी है परन्तु हम सारे सहकर्मी गुरुदेव के पीछे -पीछे इस दिव्य मार्ग की आध्यात्मिक शक्ति को वरण करते चल रहे हैं। कैसा सौभाग्य है गुरुदेव के बच्चों का। आज के लेख में भी इस बात का प्रयास किया है कि आप रंगमंच के नाटक का आनंद प्राप्त कर सकें । तो आओ चलें।

अ ) जोशीमठ से नंदनवन की यात्रा :

जोशीमठ के लिए वापसी आरम्भ हो गयी। कोई अधिक समय नहीं लगा क्योंकि रास्ता देखा हुआ था। जोशीमठ में शंकर गुफा , के पास दो बुज़ुर्ग सन्यासी मिले, स्वामी निर्मलानंद और स्वामी गम्भीरानन्द दोनों गुरु शिष्य थे। दोनों का साथ मिल गया। परिचय करने में अधिक समय नहीं लगा ,झील में तपस्वी की बातें याद आ रही थीं। जिस मार्ग से जा रहे थे कई गुफाएं थीं। ऐसा लगता था कि अब किसी गुफा से साधू महाराज बाहर आएंगें पर कोई भी दिखाई नहीं दिया। दोनों सन्यासियों के कारण रास्ता कट गया। रास्ते में कुछ दुकाने भी दिखाई दीं। पहाड़ों में ऐसी दुकाने होती हैं जहाँ ज़रूरी वस्तुएं -बर्तन ,कंबल – वगैरह मिल जाते हैं। साथ होने के बावजूद जंगली और हिंसक जानवरों से डर लगता ही था। 20 -22 घंटे के सफर में 15 बार ऐसे खूंखार जानवर ( शेर ,चीते ,तेंदुए ,भालू ) मिल ही जाते। दोनों सन्यासी गोमुख पहुँच कर अलग हो गए। वह 25 वर्ष से इस क्षेत्र में रह रहे थे ,जगह की भी जानकारी थी। गोमुख से आगे का रास्ता केवल चार किलोमीटर का ही था परन्तु इतना भयानक और कठिन कि सोच कर ही जान निकल जाती थी। गोमुख पठार का क्षेत्र ऐसा है कि बर्फ की चादर के नीचे खड्डे और खाइयां छुपी हुई होती हैं और कभी भी दुर्घटना की आशंका रहती है। बड़े- बड़े पहाड़ों के बीच एक फ्लैट सा क्षेत्र पठार कहलाता है। मुख्य खतरा हिंसक जानवरों से था। एकदम आगे आकर खड़े हो जाते और गुरुदेव सांस रोक कर डरे से सहम जाते। गुरुदेव के मार्गदर्शक ने इतनी छोटी आयु में इस यात्रा में यह परीक्षा लेने के लिए ही बुलाया था कि यह कठिनाइयां कहीं संकल्प से विचलित तो नहीं कर रहीं। इस परीक्षा के बारे में हमारे चैनल पर हमने तीन मिंट कि वीडियो भी अपलोड कि है। गुरुदेव को मार्ग में आते जाते कई सन्यासी मिले, सभी के अनुभव कंपा देने वाले थे। इन्ही स्मृतियों के बीच गुरुदेव ने रंगीन पथरों और पहाड़ी फूलों को देखना शरू किया। इतना मनोहर दृश्य देखते ही खाई खड्डों की अनुभूति का स्मरण होते ही जीवन और मृत्यु का आभास होने लगा। ऐसा लगा कि जो वर्तमान है वही जीवन है। जो क्षण सामने है उसी को साधना ही समझदारी है। इस अनुभूति के साथ यह भी स्मरण हुआ कि पिछले 3-4 दिन में गर्म कपड़ों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी ,ऋतु तो अनुकूल नहीं थी फिर भी ठंड ने कभी नहीं सताया। इसका कारण यह भी हो सकता है की जब भी सर्दी ने सताया एकदम मार्गसत्ता का विचार आया कि जब इतनी सर्दी में वह बिल्कुल ही कपडे के बिना रह सकते हैं तो हमें गर्म कपड़ों की क्या आवश्यकता है। एक बात और – अगर नाक, कान को सर्दी नहीं लगती तो बाकि शरीर को क्यों लगेगी। सन्यासियों से बातचीत के दौरान इस बात का भी ज्ञान हुआ कि बर्फ से ढके हुए पहाड़ों में गुफांए गर्म होती हैं। इन पहाड़ी क्षत्रों में दुर्लभ जड़ी बूटियां गर्मी प्रदान करती हैं। भोजपत्र के तने पर गांठों को उबाल कर ऐसा पेय (drink ) तैयार होता है जिसके पीने से सर्दी का निवारण हो जाता हैं। साधु -सन्यासी देखने की इच्छा भी पूरी हो गयी। सन्यासी तत्वबोधानंद जी यहीं मिले , उन्होंने यहाँ एक कुटिया बनाई हुई थी परन्तु रहते प्रायः बाहर ही थे। शरीर पर केवल एक वस्त्र ही लिपटा था। कभी कोई सर्दी से ठिठुरता आ जाता तो कुटिया का प्रयोग तब ही होता था। यात्री एक आध दिन रुक कर चला जाता।

ब) नंदनवन में मिला मार्गदर्शक ( दादा गुरु ) का सानिध्य:

मैप से देखा जा सकता है की तपोवन से कुछ आगे जाने पर नंदनवन आरम्भ हो जाता है। नंदनवन में कोई आकर्षण नहीं है। अधिकतर लोग तपोवन से ही वापिस चले जाते हैं। हमारे गुरुदेव को यहाँ आने का निर्देश न हुआ होता तो वह भी शायद ही आते। स्वामी तत्वबोधानंद ने बता दिया था की मार्ग बहुत ही कठिन हैं। बर्फ की पतली सी चादर जगह -जगह बिछी होती है कि संभल -संभल कर चलना पड़ता है। छड़ी के सहारे भी बर्फ पर बड़ी सावधानी से चलना होता है। जब तक पहला पांव संभल न जाये दूसरे का खतरा ही रहता है। अपनेआप को सँभालते हुए गुरुदेव कुछ दो किलोमीटर गए होंगे एक टीला दिखाई दिया। टीला तो बर्फ से पूरा ढका था परन्तु बीच में कुछ वनस्पतियां भी उगी थीं। विस्मय हुआ की बर्फानी क्षेत्र में वनस्पति, हरियाली कैसे हो सकती है। सोचा यह भी प्रकृति का ही चमत्कार होगा। उस हरियाली की तरफ ध्यान लगा ही था कि ठंडी पवन का झोंका आया और इस पवन में भीनी -भीनी महक भी व्याप्त थी। महक को पहचानने का प्रयास किया तो बिल्कुल वैसी ही थी जो वसंत वाले दिन आंवलखेड़ा की कोठरी में आयी थी। यह वह दिन था जब दादा गुरु बालक श्रीराम ( हमारे गुरुदेव ) को ढूंढते-ढूंढते उनकी पूजा वाली कोठरी में आए थे। हरियाली से ध्यान फेरा और उस दिशा की ओर देखा जहाँ से सुगंध आ रही थी। कुछ कदम दूर अपने परिचित रूप में दिगंबर अवस्था में दादा गुरुदेव खड़े थे। दिगम्बर का अंग्रेजी अर्थ skyclad होता है। सरल भाषा में दिगम्बर का अर्थ नग्न है ,यानि शरीर पर कोई भी अम्बर (कपड़ा) न होना। उन्हें देख कर हर्ष का स्रोत फूट पड़ा, मुखमंडल पुलकित (हर्षित ) हो उठा। प्रणाम के लिए गुरुदेव झुके और दिगम्बर योगी (दादा गुरु ) के हाथ भी आशीर्वाद में ऊपर उठे। बर्फ की तरह श्वेत दाढ़ी और मूंछ के पीछे छिपे होंठों पर मुस्कान उभर आई। आँखों की चमक गुरुदेव का अभिवादन करती दिख रही थी। कुशल- मंगल की औपचारिकता यां रास्ते की कठिनाइयों का पूछे बिना पीछे आने का केवल संकेत ही दिया और चल दिए। हमारे गुरुदेव दादा गुरु के पीछे -पीछे उस टीले की दिशा में चल पड़े। अब चलने में कोई सावधानी की आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई -मार्गदर्शक ( मार्ग दिखाने वाले ) जो साथ थे। चलते हुए दादा गुरु उस टीले के ऊपर तो नहीं गए ,बर्फ के नीचे बनी उस गुफा में घुस गए। भय लगा कि कहीं ऊपर छाई हुई बर्फ अपने ऊपर गिर गयी तो जीवित समाधि लग जाएगी। ऐसा विचार आया ही था कि

दादा गुरु ने पीछे मुड़कर देखा और कहने लगे , ” जीवित समाधि का लाभ भी तो है।
तुम भी हमारी तरह सूक्ष्म देहधारी हो जाओगे और सिद्धों के इस प्रदेश में वास करोगे ”

गुफा में प्रवेश करने पर देखा कुछ शिलायें रखीं हुई हैं। दादा गुरु ने संकेत कर के किसी एक पर बैठा दिया। गुरुदेव बैठ गए साथ में लाये कुछ वस्त्र वग़ैरह नीचे रख दिए और दादा गुरु को निहारने लगे। दादा गुरु ने अपनी धूनी के पास से एक पात्र उठाया और पीछे दीवार की ओर चले गए। गुफा में अँधेरा था कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वह कुछ देर दीवार के पास खड़े रहे और फिर गुरुदेव के पास आ गए। पात्र को सौंपते हुए बोले :

” इसे पी जाओ ,यह संजीवनी रस है ,इससे भूख ,प्यास मिट जाएगी और शरीर को आवश्यक पोषण मिलेगा। ”

सचमुच ही इस मीठा-नमकीन रस पीने से तृप्ति हो गयी। दादा गुरु ने धूनी में कुछ ईंधन डाला और गर्मी हो गयी। हमारे गुरुदेव सिर के नीचे बायां हाथ रख कर सो गए। नींद जब खुली तो देखा वहां कोई नहीं था,दादा गुरु भी नहीं। कोई निर्देश -सन्देश भी नहीं था। गुरुदेव उठ कर तन कर बैठ गए। कभी कभी जब अचानक नींद खुल जाये तो खुमारी सी बनी रहती है परन्तु गुरुदेव को ऐसा कुछ भी नहीं महसूस हुआ। आस -पास देखा तो एक टोकरी में दो फल रखे थे। नारियल से थोड़े बड़े होंगें और टोकरी किसी जंगली पेड़ के कड़े छिलके काट कर बनाई हुई थी। इच्छा हुई कि फल खा लिए जाएँ लेकिन मन -बुद्धि पर अंकुश लगाया कि पूजा-संध्या के बाद ही कुछ आहार लेना चाहिए। उठ कर गुफा के द्वार की तरफ आने की इच्छा हुई। मार्ग थोड़ा उबड़ -खाबड़ था और सावधानी बरतनी पड़ी। आती बार तो दादा गुरु साथ थे ,कोई डर नहीं था ,तब तो ऐसा लगा था जैसे कोई गोद में उठा कर ले जा रहा हो। गुफा के बाहर आकर देखा -सूरज चमक रहा था ,दूर -दूर बर्फ फैली थी और बीच -बीच में रंग- बिरंगे फूल और हरियाली थी। जब इधर आना हुआ था तो अलग ही दृश्य था। समय का पता नहीं ,गुफा के अंदर जाने और बाहर आने के बदले दृश्य से अंदाज़ा लगाया कि काफी समय हो गया होगा ,कम से कम 15 -20 घंटे क्योंकि इस समय में पठार ( पहाड़ नहीं ) की बर्फ पिघल जाने के कारण नीचे से वनस्पतियां दिखने लगी थीं। कुछ देर प्रकृति की सुषमा (beauty ) निहारने पर गुरुदेव ने देखा सामने एक झरना बह रहा था। पास जाकर देखा झरने का जल न ठंडा था न गर्म। स्पर्श करने पर स्मरण हुआ कि संध्यावंदन करना है। गुरुदेव ने तुरंत स्नान किया ,वहीँ बैठ कर संध्या की, अर्ग दिया, प्रदक्षिणा की और नियमित जप करने लगे।

स) मार्गसत्ता के प्रतिनिधि -एक युवा सन्यासी से भेंट :

संध्या -जप पूर्ण करके जब उठने लगे तो अपने सामने एक युवा सन्यासी को खड़े पाया। आयु कोई 25 -26 होगी और उनके हाथ में कोई कंद (शलगम की तरह ) था। गुरुदेव उठे और

सन्यासी ने उनके आगे कंद बढ़ाते हुए कहा, ” यह कंद ग्रहण कर लीजिये ”
गुरुदेव ने कहा , ” क्षमा कीजिये मैं अपनी मार्गसत्ता के पास आया हूँ और उनकी अनुमति के बिना कुछ भी नहीं ले सकता ”
सन्यासी ने कहा , ” आपके गुरु ने ही मुझे यह देकर आपके पास भेजा है ”

मन में प्रश्न उठा कि मार्गसत्ता को अपना प्रतिनिधि भेजने की क्या आवश्यकता थी। खुद भी तो निर्देश दे सकते थे जैसे आज तक देते आए हैं। यह शंका उठते ही

युवा सन्यासी ने कहा, ” मैं आपका गुरुभाई हूँ ,उनका आदेश पाते ही मैं आपके पास चला आया। यह जो कंद मैंने आपको खाने को दिया है बहुत ही लाभदायक है। भूख प्यास तो बुझाता ही है ,शीत ऋतु से भी बचाता है और मांस पेशियों को योगसाधना के अनुरूप लचीला बनाता है ”

यह सब सुन कर गुरुदेव को ग्लानि हुई कि शंका क्यों की। फिर ह्रदय के एक कोने से एक आवाज़ आयी कि सावधानी तो बरतनी ही चाहिए पर दूसरे कोने ने सन्देश दिया -जिस सत्ता ने यहाँ बुलाया है उन पर विश्वास तो होना ही चाहिए। गुरुदेव ने उस कंद को खाया ,एक टुकड़े से ही पेट भर गया ,सिंघाड़े जैसा स्वाद था।

गुरुदेव ने पूछा ,” दादा गुरु क्या इसी गुफा में रहते हैं ? ”
सन्यासी ने कहा , ” नहीं, वह तो विभिन्न निवासों में रहते हैं ,जहाँ जाना चाहे चले जाते हैं ”
गुरुदेव ने पूछा ” आप कितने समय से मार्गसत्ता के साथ हैं ? ”
सन्यासी ने कहा ” यहाँ दिन ,मास का कोई हिसाब नहीं है। सूर्योदय और सूर्यास्त का ही भान होता है ”
गुरुदेव ने पूछा ,” फिर किसी अवस्था का कैसे पता चलता है ? ”
सन्यासी ने कहा , इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती ,यहाँ केवल वही लोग आ सकते हैं जो एक विशिष्ट साधना स्थिति में पहुंचे होते हैं। यह सिद्धभूमि का प्रवेश द्वार है। इस स्थिति के साधकों का शरीर समय और स्थान से मुक्त होता है ”

इस युवा सन्यासी से पता चला कि यहाँ से आगे सिद्धलोक में पहुँचने के लिए कम से कम तीन दिन यहाँ रहना आवश्यक है। जो लोग पर्यटक की दृष्टि से इस क्षेत्र में आते हैं वह केवल दो -तीन घंटे ही रुक कर वापिस चले जाते हैं। वह यहाँ के वातावरण का दबाब नहीं सहन कर सकते ,घंटे दो घंटे भी ऑक्सीजन के सहारे ही रहा जा सकता है। हमारे गुरुदेव तो कुछ भी तैयारी नहीं करके आए थे। युवा सन्यासी ने ही कुछ अभ्यास करवाए और देवकन्द के सिवा कुछ भी नहीं खाने के लिए कहा। देवकन्द शकरकंदी की तरह धरती में से निकाला जाता है। पका हुआ देवकन्द लगभग 5 किलो के करीब होता है और इसे खाने से एक सप्ताह की भूख शांत रहती है। मार्गदर्शक सत्ता के आदेश अनुसार तीन दिन यहाँ पर रुकना अनिवार्य है। अगर मार्गसत्ता रास्ते में मिल जाएँ , खाने को दें तो लेने का निर्देश दिया और सन्यासी साधक वापिस चला गया।

द ) हमारी रिसर्च mind प्रवृति होने के कारण इन अविश्वसनीय तथ्यों को जानने की जिज्ञासा ने हमें कुछ गूगल सर्च करवाई और हमें यह कुछ मिला :
नंदनवन एक घास हरियाली का मैदान है और ऊँचे पर्वतों के समूह इस जगह को घेर रहे हैं। शिवलिंग चोटी ,अमृत गंगा ,भागीरथ पर्वत समूह, गंगोत्री ग्लेशियर यहाँ के आकर्षण हैं। पर्वतारोहण इस क्षेत्र का बहुत ही attractive शौक है। समुद्रतल से 14640 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह क्षेत्र कठिनता का लैंडमार्क है। जम्मू – कश्मीर में स्थित खिलनमर्ग भी इस से कम ऊंचाई पर स्थित है। हम इतने सौभग्यशाली तो हो नहीं सकते कि गुरुदेव के साथ यहाँ आते परन्तु इस लेख के साथ दिया हुआ गूगल 3D मैप देख कर साथ चलने की फीलिंग तो create कर ही सकते हैं।

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