वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“वंदनीय माता जी को एक के बाद एक 3 हार्ट अटैक” 

जून 20, 2020 का ज्ञानप्रसाद

जनवरी 1972  का महीना  था।  वंदनीय माता जी  प्रातः कालीन संध्या आरती समाप्त करके अपने कक्ष में आकर बैठी ही थीं तो कुछ असहज अनुभव करने लगीं। दाएं हाथ में कुछ हलकी सी पीड़ा महसूस हुई जो लहर  की भांति फैलती ही चली  गयी    । माता जी को बाहुशूल ने पकड़ा और  साथ वाले लोग घबरा गए ।  बाहुशूल बाजु के नीचे फोड़ा होने को कहते हैं।  एक दिन पहले ही  गोस्वामी तुलसीदास का प्रसंग चल रहा था। उनको भी यही रोग हुआ और अंत हो गया। पास वाले सभी परिजनों को बहुत चिंता होने लगी हालाँकि  यह प्रसंग केवल संयोगवश था। डॉक्टर को बुलाने भेजा गया ,डॉक्टर को आने में मुश्किल से दस मिनट का समय लगा होगा। स्थानीय चिकित्स्क डॉक्टर विक्रम ने जाँच करके हार्ट अटैक बताया। तुरंत उपचार किया गया ,परन्तु डॉक्टर कहने लगे यह पहला अटैक है ,जल्दी ही दूसरा भी हो सकता है । माता जी को किसी अच्छे हस्पताल में ले जाना चाहिए। औषधियों के प्रभाव से थोड़ा कष्ट तो दूर हुआ लेकिन सभी  की राय थी माता जी को बाहर किसी अच्छे हस्पताल में शिफ्ट करना चाहिए।  लेकिन जैसे ही बाहर जाने की बात होती माता जी न कर देती। यहाँ तक कि जब बाहर जाना अनिवार्य भी समझा गया तब भी माता जी ने मना ही किया। उनका कहना था – मुझे अपनी चिंता नहीं है ,

” गुरुदेव ने जो निश्चित किया है मैंने उसी का पालन करना है। वोह मुझे यहीं रहने को कह कर गए थे। “

माता जी के निर्णय को सुन कर सब चुप हो गए। डॉक्टरों ने जैसा बताया था  दो दिन बाद फिर हार्ट अटैक हुआ। यह पहले से और भी ज़्यादा था। डॉक्टरों को फिर बुलाया गया ,डॉक्टर उपचार करते रहे ,शरीर कष्ट और वेदना सहता रहा। माता जी बाहरी परिस्थितयों से बेखबर अपनी भावधारा में तन्मय रहीं । माता जी ने उस समय की मनः  स्थिति का चित्रण  बाद में किसी अवसर पर किया था। पीड़ा के उन क्षणों में लग रहा था जैसे प्राण ही निकल जायेंगे। मन में पुकार उठी कि गुरुदेव पास  होते तो कितना अच्छा होता। जीवन यदि निशेष (पूरा ) हो रहा  है तो उन्ही के सामने ही हो। आखिरी साँस उन्ही के सामने आए और  जाए यह भावधारा कब प्राथर्ना में बदल गयी पता नहीं। माता जी कहती थीं गुरुदेव के सामने कभी  कोई मनोकामना व्यक्त ही नहीं की। लेकिन पता नहीं आज क्यों मनोकामना उठ रही है। प्राथर्ना यह थी :

” यह शरीर ,जीवन आपका है ,इसका समापन आपकी उपस्थिति में हो तो अच्छा है। आपकी तप साधना में कोई रुकावट नहीं डालना है। वह जारी रहे। उसके जारी रहते ही अगर कुछ समय यहाँ आया जा सके तो आ जाएँ। यह अनुरोध एक पत्नी के नाते नहीं ,एक साधिका के नाते है। अपना आपा,अस्तित्व समर्पित कर देने के बाद अब अपना कुछ नहीं बचा है। शरीर रुपी बची एक छोटी सी चिंगारी अग्नि के महासमुद्र में खोने से पहले अपनी अंतिम आकांक्षा व्यक्त कर रही है  प्राथर्ना के इन क्षणों में यह भी विचार आता है  कि आपको गए  7-8  महीने हुए हैं औरआप कभी न आने का कह कर गए थे ,आपका आना   कैसे    संभव हो सकताहै। यह प्राथर्ना अनसुनी हो जाना तय है तो फिर भी मन राजी नहीं हो रहा। “

रोग के उभार और शिथिल  पड़ने के इस दौर में तीसरा आघात आ गया। चिकित्सा विज्ञानी जानते  हैं कि एक के बाद एक हार्ट अटैक होने पर जीवन की  सम्भावना लगभग क्षीण ही हो जाती है।   तीसरे अटैक के समय भी माता जी के मन में गुरुदेव को पुकारने का भाव घनीभूत रहा। 

” इसी समय माता जी ने यह अनुभव किया गुरुदेव वास्तव में आ गए और सामने बैठे हैं। लगा अब कोई कामना नहीं। अब कुछ करने को नहीं बचा। पलकें मूंदने लगी जैसे कभी न खुलने के लिए बंद हो रही हों।  शरीर के साथ चेतना और प्राण ने भी  गहन  विश्राम में प्रवेश किया।  पता नहीं कब तक यह स्थिति रही। “

इस स्थिति से बाहर आने पर देखा कि गुरुदेव वास्तव में सामने बैठे हुए हैं। वे कब आए  पता ही नहीं चला। उनकी उपस्थिति ने वातावरण में एक नई उमंग भर दी। सभी  बैठे परिजन ,कार्यकर्त्ता संतुष्ट हो गए अब कोई आशंका/अनिष्ट  की बात नहीं। माता जी ने गुरुदेव को देख कर उठने की कोशिश की पर उन्होंने  लेटे रहने को कहI ।  गुरुदेव   ने    वहां पर हर एक वस्तु को निहारा ,ऐसे लग रहा था जैसे यहाँ हर किसी वस्तु के अस्तित्व को निहार रहे हों ,उनकी दृष्टि माता जी पर भी पड़ी। माता जी भी उनकी तरफ देख रही थीं। लेकिन इस दृष्टि में सामान्यता नहीं थी।  कुछ विलक्षण सा दीख रहा था।  गुरुदेव की  दृष्टि कह रही थी अभी पटाक्षेप  नहीं हुआ है।  पटाक्षेप का अर्थ है -जैसे नाटक का अंत होने पर पर्दा गिरता है। 

” जितने वर्ष  हमने अखंड दीप के  समक्ष बैठ कर महापुरश्चरण किये हैं अभी उतने वर्ष और इस दीपक (गुरुवर ) के पास रहते अपनी लोकयात्रा सम्पन्न करनी है। “

उन दिनों डॉक्टर प्रणव पंड्या ,हमारे डॉक्टर साहिब , इंदौर में  MBBS  की पढ़ाई कर रहे थे और उनकी इंटर्नशिप चल रही थी। कभी कभी शांतिकुंज आ जाते थे। आज सर्वथा अनजान में ही आ गए। अंदर से कुछ आवाज़ें आ रही थीं। सोचने लगे गुरुदेव तो अज्ञातवास में हैं ,पर एक आवाज़ गुरुदेव की लगी। इसी सोच में आगे से गुरुदेव को आते देख कर सुखद आश्चर्य का अनुभव करने लगे। इसी बीच भीतर से कुछ कराहने की आवाज़ आयी तो गुरुदेव ने संकेत कर के कहा -माता जी बीमार हैं। गुरुदेव ने कहा -अब ठीक होने तक तुम ही इलाज करो। थोड़ा संकोच हुआ -कोई डिग्री नहीं ,कोई अनुभव नहीं ,यह कैसे होगा।  डॉक्टर साहब ने कहा माता जी को बाहर वाले किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाना चाहिए। गुरुदेव ने डॉक्टर साहिब से कहा :

” बाहर वाले डॉक्टर माता जी को इंजेक्शन देते हैं ,माता जी को उससे बड़ा कष्ट होता है। कष्टहोता है तो  वह  कोई बात नहीं। पर उस कष्ट से उनकी साधना पर व्यवधान पड़ता है। “

गुरुदेव ने बिना पूछे ही डॉक्टर साहिब को माता जी के उपचार में लगा दिया और कहा – यही तुम्हारी इंटर्नशिप है। तुम चिंता मत करो। उन्हें स्वस्थ होना है ,कम से कम 24 वर्ष तक जीना है।  

दिल्ली से आए डॉक्टरों की राय में खतरनाक समय टल गया है। डॉक्टर विक्रम कुछ दिन तक आकर दवाइयां देते रहे। पहली बार माता जी को एलोपैथिक दवाइयों की आवश्यकता पड़ी। आज तक तो घरेलु नुस्खों से ही काम चलाती रहीं थीं। माता जी को रोग मुक्त होने में कुछ समय लगा। कष्ट और उपचार पहले की भांति चलते रहे। गुरुदेव ने कहा था कि अपने तप को अपना कष्ट सहने या मिटाने के उपयोग में नहीं लाना है। तप साधना से मिली ऊर्जा महाकाल की आराधना में लगाई जाए। 

 ” स्वंय पर आने वाली विपदाएं सामान्यजनो की भांति झेलें “

निर्देश के बाद माता जी ने रोग को सामान्य रोगियों की तरह ही सहा ,झेला और आहिस्ता -आहिस्ता उपचार भी बंद हो गया। 

निष्कर्ष : हम अनवरत समर्पण और श्रद्धा को प्रोत्साहित करते आ रहे हैं।  माता जी ने एक बार गुरुदेव को हृदय से पुकारा ,गुरुदेव उनकी व्यथा को सुन कर अपनी साधना बीच में छोड़ कर आ गए। यह प्रसंग द्रौपदी चीरहरण के साथ मेल खIता दिखता है – जब दुखित द्रौपदी ने भगवन से  कहा- आपने  आने में इतनी देर क्यों लगा दी? भगवन कहने लगे –  सखी  तूने अभी तो बुलाया ।  भगवन अपने  सच्चे भक्त के लिए भागते आते है।  

जय गुरुदेव

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