गुरुदेव ने लगभग 3200 के ऊपर पुस्तकें लिखी परन्तु अपनी आत्मकथा ( autobiography ) नहीं लिखी। कई बार उन्हें अनुरोध भी किया गया लेकिन लेकिन हर बार टाल देते। यही कहते
” अगर मेरे बारे में कुछ जानना है तो मेरे विचारों को पहचानों “
यह जितना कुछ हम आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं गुरुदेव के सहकर्मियों की अनुभूतिआँ हैं या पत्रों द्वारा आदान प्रदान का अंश हैं । आज का लेख छोटा है क्योंकि इसके बाद वाला अगला पार्ट अत्यंत समझने एवं ह्रदय में ढालने वाला है। जिस दिन बालक श्रीराम को ढूढ़ते हुए दादा गुरु सर्वेश्वरानन्द जी हिमालय से आए थे उस दिन की पृष्ठभूमि बनाना अत्यंत महत्व पूर्ण है। तो आओ चलें देखें अपने पूज्यवर के बचपन की प्रातः की झलक :
भोर ( Dawn ) होने को है श्रीराम अपनी पूजा की कोठरी में आसन बिछाने लगे। बैठ कर ” अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा ” मन्त्र पढते हुए प्रातः कालीन संध्या का उपक्रम कर रहे थे। जिस समय लोग अंगड़ाई ले रहे होते थे श्रीराम ऋषियुग से चले आ रहे संध्या का क्रम शुरू कर चुके होते। 6 -7 वर्ष की उम्र से ही प्रातः जल्दी उठते और ध्यान -धारणा के अभ्यास में लग जाते। मन्त्र दीक्षा के उपरांत इसमें और भी क्रियाएँ जुड़ीं। महामना मालवीय जी ने मन्त्र दीक्षा के समय विधि-विधान समझाया था और कहा था की संध्या वंदन दोनों समय होना चाहिए। 1916 में पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने वाराणसी में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की नींव रखी और बालक श्रीराम को मन्त्र दीक्षा दी। समय के साथ -साथ मालवीय जी ने स्थान और उपक्रम का भी महत्व बताया था। सबसे पुण्य स्थान पवित्र जलाशय ,पर्वत शिखर ,एकांत बगीचा ,देव मंदिर ,या अपना घर बताया गया था। पहले तो श्रीराम गांव से बाहर देवमंदिर में बैठकर संध्या वंदन करते परन्तु बाद में पिता रूपकिशोर शर्मा जी के स्वर्गवास होने के बाद घर में ही बैठने लगे। विशाल हवेली के एक कमरे में पूजा स्थान बना लिया। कमरे का दरवाज़ा पूर्व की और खुलता था। दरवाज़े के बाहर तुलसी का पौधा था। संध्या के लिए बैठते समय पूर्व दिशा की और मुंह करते। अर्घ्य देना होता तो वे बाहर आ जाते और पौधे के पास खड़े होकर सूर्य नमस्कार करके इस तरह जल चढ़ाते की जल ज़मीन पर न गिर कर तुलसी में ही गिरे। जब गांव वाले मंदिर में संध्या करते थे पास में ही एक पात्र रख लेते और खड़े हो कर जल चढ़ा देते।
श्रीराम प्रातः 4 बजे उठ जाते। स्नान आदि से निवृत हो कर संध्या वंधन के लिए बैठते। हवेली परिसर में बने कुँए से वे अपने हाथ से पानी खींचते। हवेली के लोग हालाँकि जग जाते थे पर श्रीराम पूरी सावधानी से बाल्टी रखने या पानी के गिरने की आवाज़ में सावधानी बरतते कि कोई आवाज़ न हो। संध्या आरम्भ करने के बाद श्रीराम जप और ध्यान में पूरी तरह तन्मय हो जाते। अवधि की दृष्टि से उनकी संध्या 40 मिनट में पूरी हो जाती थी। गायत्री मन्त्र की एक माला और सूर्यौदय के स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान करने में 6 मिनट का समय लगता। सध जाने में 4 मिनट लगते। इस स्थिति में गणना का ध्यान ही नहीं रहता । गायत्री दीक्षा लेने के बाद श्रीराम 5 माला प्रातः और 2 माला शाम को जपते। दोनों संध्याओं में कुल 1 घंटा समय लग जाता।
इस लेख में हम प्रयास कर रहे हैं आपको गुरुवर की एक एक क्रिया का इस प्रकार से वर्णन करें कि यह एक “अविस्मरणीय आँखों देखा हाल ” बन सके। क्योंकि इससे अनगनित परिजन प्रेरणाबद्ध होंगे। हमारे श्रध्ये डॉक्टर साहिब ( डॉक्टर प्रणव पंड्या ) और ज्योतिर्मय जी जिन्होंने इस पुस्तक को लिखा है बड़ी ही बारिकी से इन सभी बातों का वर्णन किया है। आंवलखेड़ा की हवेली। पूजा की कोठरी ,तुलसी का पौधा और कुआँ जिनका वर्णन हम कर रहे हैं परिजन इनको प्रत्यक्ष नेत्रों से देखने के लिए हमारी वीडियो देख सकते हैं। यह वीडियो हमने खुश्वाहा भाई साहिब की सहायता से नवंबर 2019 में शूट की थी। कम्युनिटी लेखों की limitation के कारण हम केवल 1 -2 pictures ही लगा सकते हैं। इससे ज़्यादा लगाएं तो वह छोटी हो जाती हैं। अगर कोई परिजन इच्छुक हों तो हमारे साथ whatsapp पे connect हो सकते हैं।
अंग्रेजी तारीख के अनुसार 18 जनवरी 1926 सोमवार का दिन थ। बालक श्रीराम ध्यान और जप में मग्न थे। मालवीय जी की दीक्षा के अनुसार श्री राम जप की अवस्था में थे। उनके होंठ हिल रहे थे लेकिन ध्वनि नहीं थी । इसके साथ ही पूर्व दिशा से स्वर्णिम सविता देवता का ध्यान हो रहा था। सूर्य का आलोक स्वर्णिम आभा फैलाने लगा। शरीर ,मन , बुद्धि,चित्तऔर उससे आगे जितने भी लोक हो सकते हैं सबमें प्रकाश फैलने लगा। नया उत्साह आ रहा है। जप और ध्यान की ऐसी अवस्था चल रही है जिसमे चित्त संकल्प -विकल्प से मुक्त हो जाता है। हम पूरा प्रयास कर रहे हैं कि इस लेख को अधिक से अधिक ज्ञान युक्त और सरल बनायें जिसमें हमारे परिजनों को समझने में कोई असुविधा न हो क्योंकि यह इसमें पढने के बजाय feeling की बात ज़्यादा है।
जय गुरुदेव