आज का लेख थोड़ा ध्यान से अध्यन करने की आवश्यकता है। हमने अत्यंत प्रयास करके इस लेख को जितना हो सकता था simple किया है। मार्गदर्शक के निर्देश पर देवात्मा हिमालय मंदिर की शोभा और शांतिकुंज में ऋषि परम्परा को स्थापित करना इस लेख के मुख्य आकर्षण हैं। हमारा प्रयास है कि परिजनों को इस युगतीर्थ जिसका नाम ” शांतिकुंज ” है से अवगत करवाया जाये। अनेकों ऋषिसत्ताओं ने हमारे गुरुदेव के माध्यम से इस युगतीर्थ में अपना योगदान दिया है।
पार्ट 1 देवात्मा हिमालय
देवात्मा हिमालय का प्रतीक प्रतिनिधि शान्तिकुञ्ज को बना देने का जो निर्देश मिला वह कार्य साधारण नहीं था श्रम एवं धन साध्य था और सहयोगियों की सहायता पर निर्भर भी। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के उस ध्रुव केंद्र ( हिमालय ) में सूक्ष्म शरीर से निवास करने वाले ऋषियों की आत्मा का आह्वान करके प्राण प्रतिष्ठा का संयोग भी बिठाना था। यह सभी कार्य ऐसे हैं, जिन्हें देवालय परम्परा में अद्भुत एवं अनुपम कहा जा सकता है। देवताओं के मंदिर अनेक जगह बने हैं। वे भिन्न-भिन्न भी हैं। एक ही जगह सारे देवताओं की स्थापना का तो कहीं सुयोग हो भी सकता है, पर समस्त देवात्माओं ऋषियों की एक जगह प्राण प्रतिष्ठा हुई हो ऐसा तो संसार भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। फिर इससे भी बड़ी बात यह है कि ऋषियों के क्रियाकलापों का न केवल चिह्न पूजा के रूप में वरन् यथार्थता के रूप में भी यहाँ परिचय भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस् गायत्री तीर्थ एक प्रकार से प्रायः सभी ऋषियों के क्रियाकलापों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भगवान् राम ने लंका विजय और रामराज्य की स्थापना के निमित्त मंगलाचरण रूप में रामेश्वरम् पर शिव प्रतीक की स्थापना की थी। गुरुदेव को युग परिवर्तन हेतु संघर्ष एवं सृजन प्रयोजन के लिए देवात्मा हिमालय की प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा समेत करने का आदेश मिला। शान्तिकुञ्ज में देवात्मा हिमालय का भव्य मंदिर ” पाँचों प्रयागों, पाँचों काशियों, पाँचों सरिताओं और पाँचों सरोवरों ” सहित देखा जा सकता है। इसमें सभी ऋषियों के स्थानों के दिव्य दर्शन हैं। इसे अपने ढंग का अद्भुत एवं अनुपम देवालय कहा जा सकता है। जिसने हिमालय के उन दुर्गम क्षेत्रों के दर्शन न किए हों, वे इस लघु संस्करण के दर्शन से वही लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
हम यह जानकारी इस कारण दे रहे हैं कि बहुत से परिजन जब शांतिकुंज आते हैं तो इन खूबसूरत फ़वारों के आगे सेल्फी लेकर वापिस चले जाते हैं। अगर देवात्मा हिमालय मंदिर के अंदर जाते भी हैं तो अँधेरा देख कर ,चुपचाप साधना करते परिजनों को देख कर एक द्वार से अंदर जाकर दूसरे से बाहर आ जाते हैं। छत पे लगी flood lights जब सामने लघु हिमालय के ऊपर पड़ती हैं तो अनुपम दृश्य देखने को मिलता है।
पार्ट 2 शांतिकुंज
गुरुदेव को जब तीसरी बार हिमालय बुलाया गया तो ऋषियों के दर्शन भी करवाए गए थे। पुरातन काल के ऋषियों में से किसी का भी स्थूल शरीर तो नहीं है पर उनकी चेतना निर्धारित स्थानों में मौजूद है। सभी से गुरुदेव का परिचय कराया गया और कहा गया कि इन्हीं पद चिन्हों पर चलना है। इन्हीं की कार्य पद्धति अपनानी है। देवात्मा हिमालय के प्रतीक स्वरूप शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में एक आश्रम बनाना और ऋषि परम्परा को इस प्रकार कार्यान्वित करना है, जिससे युग परिवर्तन की प्रक्रिया का गति चक्र सुव्यवस्थित रूप से चल पड़े
जिन ऋषियों ने कभी हिमालय में रहकर विभिन्न कार्य किए थे, उनका स्मरण मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को इस तीसरी यात्रा में दिलाया था। इनमें थे, भागीरथ (गंगोत्री), परशुराम (यमुनोत्री), चरक (केदारनाथ), व्यास (बद्रीनाथ), याज्ञवल्क्य (त्रियुगी नारायण -रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट ), नारद (गुप्तकाशी -रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट ), आद्य शंकराचार्य (ज्योतिर्मठ डिस्ट्रिक्ट चमोली ), जमदग्नि -परशुराम के पिता (उत्तरकाशी), पातंजलि (रुद्र प्रयाग), पिप्पलाद, सूत-शौनिक, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न (ऋषिकेश), दक्ष प्रजापति, कणादि एवं विश्वामित्र सहित सप्त ऋषिगण (हरिद्वार)। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर एवं तुलसीदास जी के कर्तव्यों की झाँकी दिखाकर भगवान् बुद्ध के परिव्राजक धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान को युग अनुकूल परिस्थितियों में संगीत, संकीर्तन, प्रज्ञा पुराण कथा के माध्यम से देश-विदेश में फैलाने एवं प्रज्ञावतार द्वारा बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध पूरा किए जाने का भी निर्देश था। समर्थ रामदास के रूप में जन्म लेकर जिस प्रकार व्यायाम शालाओं, महावीर मंदिरों की स्थापना सोलहवीं सदी में हमारे गुरुदेव से कराई गई थी उसी को नूतन अभिनव रूप में प्रज्ञा संस्थानों, प्रज्ञापीठों, चरणपीठों, ज्ञानमंदिरों, स्वाध्याय मण्डलों द्वारा सम्पन्न किए जाने के संकेत मार्गदर्शक द्वारा हिमालय प्रवास में ही दे दिए गए थे। आज हज़ारों प्रज्ञापीठ विश्वभर में इस संकल्प को सुचारु रूप से चला रहे हैं।
हम पाठकों को यह बताना चाहेंगें कि जिस जन्म कि बात हम इस वक़्त कर रहे हैं यह पूज्यवर का चौथा जन्म था। पूर्व तीन जन्मों में गुरुदेव संत कबीर ,समर्थ रामदास और रामकृष्ण परमहंस के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए थे। इन तीनो जन्मों का वर्णन गुरुदेव के गुरु सर्वेश्वरानन्द ने 1926 की वसंत वेला में आंवलखेड़ा में उनकी पूजा कोठरी में पधार कर दिया था।
इन सभी ऋषियों ने बहुत इस उच्च कार्य किये हैं एवं गुरुदेव को मार्गदर्शक ने इन्ही के पदचिन्हों पर चलने का निर्देश दिया। एक- एक ऋषि सत्ता के आगे उनके द्वारा करवाए जा रहे कार्यों का व्योरा दिया गया। इस सीमित लेख में प्रत्येक का सम्बन्ध शांतिकुंज में हो रही गतिविधियों के साथ मिलाया तो अति लम्बा हो जायेगा। इस कारण कुछ एक का ही संक्षिप्त सा वर्णन देना उचित समझा है। अगर कोई पाठक बाकी के बारे में डिटेल में अध्यन करना चाहे तो उसका reference प्रत्येक बार की तरह इस लेख में भी दे देंगें।
1 ) विश्वामित्र गायत्री महामंत्र के द्रष्टा, नूतन सृष्टि के सृजेता माने गए हैं। उन्होंने सप्तऋषियों सहित जिस क्षेत्र में तप करके आद्यशक्ति का साक्षात्कार किया था, वह पावन भूमि यही ” गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज ” की है, जिसे
“गुरुदेव के मार्गदर्शक ने दिव्य चक्षु (divine sight ) प्रदान
करके दर्शन कराए थे एवं इस आश्रम के निर्माण के लिए
प्रेरित किया था।”
विश्वामित्र की सृजन साधना के सूक्ष्म संस्कार यहाँ सघन हैं। महाप्रज्ञा को युग शक्ति का रूप देने उनकी ” चौबीस मूर्तियों ” की स्थापना ( ब्रह्मवर्चस शोध संसथान ) कर सारे राष्ट्र एवं विश्व में आद्यशक्ति का वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सद्बुद्धि की प्रेरणा वाला संदेश यहीं से उद्घोषित हुआ। अनेक साधकों ने यहाँ गायत्री अनुष्ठान किए हैं एवं आत्मिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है। शब्द शक्ति एवं सावित्री विधा पर वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वामित्र परम्परा का ही पुनर्जीवन है। ब्रह्मवर्चस रिसर्च सेंटर शांतिकुंज से केवल आधा किलोमीटर दूर है। हम इस संस्थान में कई बार जा चुके हैं। यहाँ की औषधि वाटिका और अनुसन्धान लैबोरेट्रीज देखने योग्य हैं। यहाँ के कार्यकर्ताओं के अनुसार काफी कुछ देव संस्कृति विश्विद्यालय में शिफ्ट कर दिया गया है।
2) जमदग्नि का गुरुकुल उत्तरकाशी में स्थित था एवं बालकों, वानप्रस्थों की समग्र शिक्षा व्यवस्था का केंद्र था। अल्पकालीन ( small duration ) साधना, प्रायश्चित, संस्कार आदि कराने एवं प्रौढ़ों ( adults ) के शिक्षण की यहाँ समुचित व्यवस्था थी। लोकसेवियों का शिक्षण, गुरुकुल में बालकों को नैतिक शिक्षण तथा युग शिल्पी विद्यालय में समाज निर्माण की विधा का समग्र शिक्षण सत्र शांतिकुंज में निरंतर संचालित किये जाते हैं। इन सत्रों की विस्तृत जानकारी awgp.org वेबसाइट से मिलती रहती है। सभी सत्रों के लिए रजिस्ट्रेशन आवश्यक है और आवास ,खाना इत्यादि सब निशुल्क है।
3) देवर्षि नारद ने गुप्त काशी में तपस्या की। वे निरंतर अपने वीणवादन से जन-जागरण में निरत रहते थे। उन्होंने सत्परामर्श द्वारा भक्ति भावनाओं को जाग्रत किया था। शान्तिकुञ्ज के युग गायन शिक्षण विद्यालय ने अब तक हजारों ऐसे परिजन प्रशिक्षित किए हैं। वे अकेले अपने-अपने क्षेत्रों में एवं समूह में टोली द्वारा भ्रमण कर नारद परम्परा का ही अनुकरण कर रहे हैं। देश विदेश में गायत्री कार्यक्रमों में इन गायन टोलियों का अपना ही विशेष स्थान होता है। इनके द्वारा गाये गए मधुर ,शिक्षाप्रद गीत हमारे Youtube चैनल पर सुशोभित हैं।
4) देव प्रयाग में भगवान राम को योग वशिष्ठ का उपदेश देने वाले वशिष्ठ ऋषि धर्म और राजनीति का समन्वय करके चलते थे। शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार ने सन् 1930 से सन् 1947 तक आजादी की लड़ाई लड़ी है। जेल में कठोर यातनाएँ सही हैं। बाद में साहित्य के माध्यम से समाज एवं राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है। धर्म और राजनीति के समन्वय साहचर्य के लिए जो बन पड़ा है, हम उसे पूरे मनोयोग से करते रहे हैं।
5) योगऋषि पतंजलि ने रुद्रप्रयाग में अलकनंदा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। उन्होंने प्रमाणित किया कि मानवी काया में ऊर्जा का भण्डार स्थापित है। इस शरीर तंत्र के ऊर्जा केंद्रों ( energy centres ) को जाग्रत कर मनुष्य देवमानव बन सकता है, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बन सकता है। शान्तिकुञ्ज में योग साधना के विभिन्न अनुशासनों योगत्रयी, कायाकल्प एवं आसन-प्राणायाम के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों की बहुमूल्य यंत्र उपकरणों से शारीरिक-मानसिक परीक्षा सुयोग्य चिकित्सकों से कराने उपरांत साधना लाभ दिया जाता है एवं भावी जीवन सम्बन्धी दिशाधारा प्रदान की जाती है। इसका कुछ भाग यूनिवर्सिटी में भी शिफ्ट किया गया है। आप शांतिकुंज से संपर्क करके इस सन्दर्भ में और जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। awgp.org वेबसाइट बहुत ही लाभदायक है।
जय गुरुदेव