आज का लेख बहुत ही प्रेरणादायक है और लेकिन उसको आरम्भ करने से पहले इसकी पृष्ठभूमि वर्णन करना अति अनिवार्य है। यह लेख हमारे पिछले 6 मास के अनवरत परिश्रम का परिणाम है।
नवंबर 2019 को हम तपोभूमि मथुरा प्रवास में थे। एक प्रश्न जिसने हमारे हृदय में बहुत जिज्ञासा उत्पन की वह था 750 वर्ष पुरातन अखंड अग्नि के बारे में। इसका प्रमाण तपोभूमि परिसर में नहीं मिला तो वहां कार्यकताओं को पूछा लेकिन संतुष्टि नहीं हुई। कौन था जिसने इस 750 वर्ष पुरातन अग्नि को यहाँ लाया ,क्या साधन थे जिसके द्वारा इसको लाया गया क्योंकि यह अग्नि है, खतरे की सम्भावना हो सकती है। कई परिजनों से भी अपनी शंका discuss की परन्तु कोई satisfactory उत्तर नहीं मिला। इस दुविधा में पूज्य गुरुदेव ने जिस तरह साथ दिया उसका वर्णन करने के लिए अक्षर कम पड़ जायेंगे। खुद ब खुद ही गुरुदेव इस पुस्तक के उन्ही पन्नों पर लेकर चले गए जहाँ पर इस प्रश्न के उत्तर का वर्णन थ। मानो पता नहीं क्या खज़ाना मिल गया -फिर क्या था ,जुट गए हम इस कार्य पर और कई दिनों के स्वाध्याय के उपरांत परिणाम आपके समक्ष है।
30 मई का दिन था , आज से गुरुदेव का 24 दिन का जल उपवास आरम्भ हुआ। गुरुदेव ने गायत्री माता के मंदिर के सामने एक लकड़ी का तख़्त बिछाया ,उस पर दरी और चाद। धूप से बचने के लिए तिरपाल तान दी। घीआ मंडी से गुरुदेव और माता जी सुबह पांच बजे आ गए थे। माता जी ने आचार्य श्री को तिलक किया,चरण छूए और तुलसी दल दिया। आचार्य श्री ने तुलसी दाल मुख में रखा। तपोभूमि में पहले से मौजूद कुछ चार पांच कार्यकर्ताओं ने गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया। इन चौबीस दिनों में कई महापुरष आए गुरुदेव उनसे मिलते भी रहे और थोड़ी बहुत बातें भी करते रहे।
19 से 24 जून का समय सहस्त्रांशु ब्रह्मयज्ञ की पूर्णाहुति और गायत्री तपोभूमि के प्राणप्रतिष्ठा की तैयारियों का था। इस समारोह में आने के लिए कई लोगों को निमंत्रण पत्र गए। लगभग सभी ने तत्परता दिखाई। ढाई तीन हज़ार साधकों के आने के सम्भावना बन रही थी। सोचा गया कि सभी के आने के बजाय कुछ परिजन अपने-अपने क्षेत्र में ही काम करें तो अच्छा होगा। गायत्री तपोभूमि की प्राणप्रतिष्ठा की गूँज मथुरा के बाहर भी सुनाई देनी चाहिए। कुछ परिजन 2400 तीर्थों का जल- रज इकठा करने के उपरांत वापिस आनेवाले थे। मंदिर के दक्षिण भाग में इनकी स्थापना की जानी थी। मंदिर के उत्तर भाग में 2400 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन का संग्रह स्थापित किया जाना था। विश्व का प्रथम गायत्री मंदिर स्थापित होने जा रहा था।
वैसे तो गायत्री तपोभूमि का नया स्वरूप निर्माणधीन है लेकिन पाठक वर्तमान स्वरूप की वीडियो नीचे लिंक द्वारा देख सकते हैं।
मुख्य कार्यक्रम 20 जून से आरम्भ होने थे। स्वामी ओंकारानंद और आर्यसमाज सन्यांसी स्वामी प्रेमानंद भी इस समारोह में समिल्लित होने आए थे। गुरुदेव स्वयं आयोजन में शरीर से बहुत सक्रीय नहीं हो पा रहे थे। जल -उपवास के कारण काफी कमज़ोर हो गए थे। 8 किलोग्राम वज़न कम हो गया था ,बुखार भी था। उन दिनों थर्मामीटर का इतना चलन नहीं था। गुरुदेव को स्वयं बुखार लग रहा था। सभी को लग रहा था गुरुदेव कोई प्रवचन नहीं करेंगें लेकिन फिर भी उनसे पूछना ठीक समझा। आचार्यश्री ने कहा वे अपना सन्देश लिख कर देंगें। शरीर कमज़ोर एवं बुखार होने के बावजूद गुरुदेव की आँखों में तेज झलकता था। बहुत से लोगों ने इस को महसूस किया।
20 जून की सुबह पंडित लाल कृष्ण पंड्या की अध्यक्षता में पंचकुंडीय गायत्री महायज्ञ आरम्भ हुआ। आज कल जहाँ यज्ञशाला है वहां पांच अस्थाई कुंड बनाए गए। तीन दिन चलने वाले गायत्री यज्ञ के इलावा साधना उपासना के विशेषकार्यक्रम भी शुरू हुए। इन कार्यक्रमों में सवा हज़ार चालीसा पाठ, महामृत्युंजय यज्ञ ,गायत्री सहस्त्रनाम और दुर्गा सप्तशती का पाठ चलता रहा।
अग्नि स्थापना :
दो प्रकार की अग्नियां स्थापित की गयीं थीं। एक अरणी मंथन ( इसका उल्लेख आगे है ) से प्रकट की गयी और दूसरी हिमालय से लायी गई विशिष्ट अग्नि। शिव पार्वती की तपस्थली हिमालय में 750 वर्ष पूर्व प्रज्जवलित यह अग्नि एक सिद्ध आत्मा की धूनी से त्रियुगी (तीन युग ) नIरायण मंदिर से लाई गई थी। यह मंदिर रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट उत्तराखंड में स्थित है। मथुरा से 586 किलोमीटर दूर यह पुरातन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। हमारे शास्त्रों में इस मंदिर का वर्णन है क़ि भगवान शिव का विवाह माँ पार्वती के साथ इसी पावन स्थान पर हुआ था और भगवान विष्णु इसके साक्षी थे। इस मंदिर के बारे में विशेष बात यह है कि इसके प्रांगण में अग्नि ज्वलंत है जो शिव पार्वती के दिव्य विवाह के समय से अखंड जल रही है।
इसलिए इस मंदिर का नाम अखंड धूनी मंदिर भी है।
यज्ञशाला में इस के प्रकट होने का विधान भी अद्भुत था। इसके बारे में किसी को पता नहीं कि वह कहाँ सुरक्षित थी और कब लाई गई। यज्ञ प्रारम्भ होने संध्या को अनायास ही एक अज्ञात साधु महाराज तपोभूमि में पहुंचे। उन्हें किसी ने आते हुए भी नहीं देखा था यद्यपि शाम को ढाई तीन सौ लोग वहां मौजूद थे। साधु महाराज पर लोगों की नज़र तब पड़ी जब वह आचार्यश्री के निकट दिखाई दिए यों कहें साधु महाराज ने सब लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। पुरातन किन्तु साफ सुथरी चीवर ( योगियों की वेश ) धारण किये वह साधु महाराज अपनी उपस्थिति से ही सब को आकर्षित कर रहे थे। सामान्य से दिखने वाले उन सन्यासी महाराज के व्यक्तित्व में अनूठी आभा थी, ऐसी आभा जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। पटना से आए केदारनाथ सिंह ,अयोध्या से जानकीशरण दास,जयपुर के चंद्रकांत ,पूना के रमाकांत जोशी सभी कार्यकताओं का मानना था कि यह साधु महाराज अचानक ही प्रकट हुए हैं। उनके पास एक कमंडल था। इस कमंडल में से हलकी सी आंच के साथ आभा निकल रही थी। गुरुदेव ने उन साधु महाराज को देखा और देखते ही उठ कर खड़े हो गए। अभी तक जिनके लिए बैठना भी सम्भव नहीं था उनका तनकर खड़े होना वहां सभी को हैरान कर गया। आचार्यश्री ने उन साधु महाराज को झुककर प्रणाम किया। साधु महाराज ने कहा -यज्ञशाला में इस सिद्धभूमि की अग्नि का भी आघान किया जाना है। इसे कभी भी मंद नहीं पड़ना चाहिए, न ही तिरोहित ( ढका हुआ ) होना चाहिए। अग्नि अखंड रहे। कमंडल से निकाल कर साधु महाराज ने वन अग्नि को एक पात्र में रख। यह दृश्य वहां पर मौजूद सब ने देखा। एकाध ने पूछा भी महाराजश्री कहां से पधारें हैं।
आचार्यश्री ने कहा :
जहाँ से ऋषिसत्तायें इस यज्ञ का संचालन कर रही हैं ,हिमालय के अगम्य प्रदेश में सिद्धजन सैंकड़ों वर्षों से तप कर रहे हैं वहां के प्रतिनिधि के रूप में इन विभूति का आगमन हुआ है।
गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शक के साथ इन सूक्ष्म देहधारियों को हवन करते देखा था। 30 से 80 वर्ष की आयु वाले यह 24 सन्यासी उस हिमालय क्षेत्र में यज्ञ अदि में संलग्न थे और लोक में व्याप्त पतन के निवारण के लिए यहाँ तप कर रहे हैं। उनकी स्वर और शैली से लगता था यह बहुत ही पुराने युग की बात है।दादा गुरु ने गुरुदेव को बता दिया था इसी तरह का एक साधनात्मक उपक्रम भविष्य में बनने वाले केंद्र में भी चलाना है। ( ब्रह्मवर्चस ?।
गुरुदेव अपने आसन से धीरे- धीरे उठे ,पावं में खड़ाऊँ पहनी और पात्र में रखी उस दिव्य अग्नि को लेकर प्रमुख कुंड की तरफ आए ,माता जी भी उनके साथ थीं। उन्होंने 4 समिधायं चुनी ,उन्हें कुंड में स्थापित किया और मंत्रोचार के साथ अग्निदेव का आवाहन किया। आसपास वाले सब साधक खड़े हो गए। कपूर और घी के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई और आहुतियाँ दी गयीं। इस अग्नि में धुएं की एक भी रेखा नही थी। निधूर्म अग्नि को यज्ञाचार्यों ने अग्निदेव के प्रसन्न होकर आहुतियाँ ग्रहण करने का प्रतीक बताया।
शेष चार कुंडों में भी समिधायें रखीं थीं। इन कुंडों में गुरुदेव ने शमी और पलाश की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि प्रकट की। शमी और पलाश एक विशेष प्रकार की लकड़ी होती है जिस के रगड़ने से चिंगारियां प्रकट होती है। हमारे पाठक इस प्रकार की विधा के लिए गूगल कर सकते हैं इसको अरणी मंथन कहते हैं। गुरुदेव ने कहा था कि दियासिलाई की रगड़ से अग्नि नही प्रकट की जानी है। गुरुदेव ने लकड़ियां पकड़ीं ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम सुक्त पाठ करने लगे। पाठ करते ही उन्होंने लकड़ियों को रगड़ा ,लोग उत्सुकता से देख रहे थे। लाइटर की तरह छोटी सी लौ उठी ,लोगों की ऑंखें खुली की खुली रह गईं। इस लौ से कुंड में पड़ी समिधाओं का स्पर्श किया ही होगा कि लपटें उठीं ,उसके बाद तुरंत घी की आहुतियां दी गयीं। पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी प्रमुख कुंड पर बैठे रहे और शेष कार्य सम्पन्न हुआ।
जून मास की तपती गर्मी में पूर्व दिशा से सविता देवता थोड़ी देर पहले ही उदय हुए थे ऐसे लग रहा था जैसे उन्होंने अरणी मंथन से अग्नि प्रकट होने के साक्षी बनना चाह रहे हों।